तड़पे हैं, जले हैं भरी धूप में उम्र भर, व्यथा कही न कभी किसी से पर,
अब आए हो बन के बादल, कुछ तुम पागल, कुछ मैं भी पागल,
फैला लो अपनी बाहों को जैसे अंबर, थक सा गया हूं भागते दौड़ते,
कितना नीर सरहा जिंदगी का सफर, सहज हो लूं जरा, तेरे कांधे पर रख लूं सर,
सो लूं थोड़ी देर को, तेरी गोद में, अपने गेसुओं की छांव कर दो गर। रख लूं सर।।
जब जिंदगी में, तुम नहीं शामिल थे, हम भी अपने गमों में गाफिल थे,
बड़ी ही खामोशी से गुजारदिए दर्द के वो दिन भी उस दौर के,
जाया था वो वक्त तुम्हारे लिए, जो है मेरे लिए अनमोल, खुदा जानें, वो बावफा हैं या बेवफा ‘बेतौल’,
न जाने अब भी क्यूं निगाहें तलाशती रहती हैं निशान उनके, आज महफिल में बगलगीर हैं वो किसी गैर के।
लेखक - अतुल पाण्डेय (बेतौल)