तन माटी का, जला धूप में, हो बिरहन, न छांव कहीं, कुछ ऐसे गुजरा सावन,
जलते रहे दिन, उमस भरी रातें गईं यादों में, आज आई सांवरी बदरी बरसी भादों में,
ए सांवरिया, तेरी झलक ही हिय हर्षाए, कुछ बूंदें तेरी पाते ही,
तपती सूखी माटी से सोंधी खुशबू आए, देख तो जरा, दीवानी माटी,
तुझसे मिलते ही, तुझमें घुलना चाहे, चल दे ‘बेतौल’ उधर ही जिधर तू जाए।
लेखक - अतुल पाण्डेय (बेतौल)