खुशबू होती तो है हर फूल में, बात गुलों की हो तो, गुलाब और है,
नशा तो बहुत है इस जहां में, पी जो तेरी आंखों से वो शराब और है,
फर्क पड़ता नहीं सामने कौन है, छज्जे के उस कोने में तेरा दीदार और है,
पूर्णमासी हो या रात अमावस की, तेरी ओढ़नी सरके जो सर से, उस चांद का आफताब और है,
संगीत बिखरा है गलियों चौबारों में, तेरी पायल जो छनक जाए तो झंकार और है,
बिकती हैं सरगोशियां तमाम बाजारों में, तेरे साथ गुजरें कुछ पलों का *आज़ार और है,
छुई मुई भी सिमट जाती छू लेने से ‘बेतौल‘, तू मेरी बाहों में सिमट जाए वो एहसास और है।।
*आजार- आग
लेखक - अतुल पाण्डेय (बेतौल)